Supreme Court: भारतीय समाज में बेटियों को लेकर लंबे समय से यह सोच रही है कि शादी के बाद उनका हक मायके की संपत्ति पर नहीं रहता। लेकिन अब यह सोच बदल रही है और इस बदलाव को कानूनी ताकत दी है सुप्रीम कोर्ट ने। हाल ही में सुनाए गए एक ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया है कि शादीशुदा बेटी का भी खेती की जमीन पर पूरा अधिकार है। यह निर्णय ना केवल कानून की दृष्टि से बल्कि सामाजिक बदलाव की दिशा में भी एक बेहद अहम कदम माना जा रहा है। गांव-देहातों से लेकर शहरों तक जहां आज भी कई परिवारों में बेटियों को संपत्ति से वंचित कर दिया जाता है, वहां अब यह फैसला मिसाल बन सकता है।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला और कानूनी आधार
सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला 2025 में एक पारिवारिक विवाद की सुनवाई के दौरान दिया। मामला एक ऐसी बेटी का था जिसे उसके भाई ने यह कहकर खेती की ज़मीन से वंचित कर दिया था कि वह शादीशुदा है और अब उसके मायके की संपत्ति से कोई नाता नहीं है। यह विवाद जब निचली अदालतों से होता हुआ सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा, तो अदालत ने हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 और संविधान के अनुच्छेदों का हवाला देते हुए स्पष्ट किया कि बेटी का अधिकार जन्म से है, और वह शादी के बाद भी बना रहता है।
अदालत ने कहा कि बेटियों को केवल इसलिए संपत्ति से वंचित नहीं किया जा सकता क्योंकि वे विवाह कर चुकी हैं। यह भेदभाव संविधान के मौलिक अधिकारों के खिलाफ है। सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले में यह भी कहा कि कोई भी पिता, भाई या परिवार शादी को आधार बनाकर बेटी को पैतृक संपत्ति से वंचित नहीं कर सकता। यह फैसला अब कानून की व्याख्या में एक ठोस मिसाल बन चुका है।
समाज में बदलाव की शुरुआत
इस फैसले के बाद समाज में खासकर ग्रामीण इलाकों में धीरे-धीरे सोच में बदलाव देखने को मिल रहा है। पहले जहां बेटियों को केवल विवाह के समय दहेज देकर संपत्ति से अलग कर दिया जाता था, अब वहां यह समझ बन रही है कि बेटियों का हक बराबरी का है। यह फैसला न केवल बेटियों को उनका हक दिलाने वाला है बल्कि यह भी दर्शाता है कि अब बेटियों को परिवार में महत्त्व देने का समय आ गया है।
कई महिलाएं इस फैसले के बाद आगे आकर अपने अधिकार के लिए आवाज़ उठा रही हैं। इससे समाज में महिलाओं की स्थिति और मज़बूत हो रही है और उन्हें केवल ‘पराया धन’ कहकर दरकिनार करने की सोच को चुनौती मिल रही है। ऐसे फैसले बेटियों के आत्मविश्वास को बढ़ाते हैं और उन्हें अपनी पहचान खुद तय करने की ताकत देते हैं।
कानूनी अधिकार लेने की प्रक्रिया
अगर कोई बेटी अपने हक की लड़ाई लड़ना चाहती है तो उसे सबसे पहले ज़मीन के रिकॉर्ड में अपना नाम जुड़वाना होगा। अगर नाम शामिल नहीं है, तो वह कोर्ट में याचिका देकर संपत्ति पर दावा कर सकती है और सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दे सकती है।
राज्य सरकारों ने भी अब महिलाओं के भूमि अधिकार को मान्यता देने की प्रक्रिया को सरल बनाया है। महिलाएं तहसील, पटवारी या पंचायत कार्यालय में जाकर अपने दस्तावेज़ों की जांच करवा सकती हैं। यदि फिर भी समाधान न मिले तो वे जिला अदालत से लेकर उच्च न्यायालय तक जा सकती हैं और अब इस फैसले से उनके पक्ष को मजबूत कानूनी सहारा मिलेगा।
परिवारों में बढ़ेगा बराबरी का भाव
इस ऐतिहासिक फैसले के बाद परिवारों में भी यह सोच पनप रही है कि बेटियों को भी बेटे की तरह संपत्ति में हक मिलना चाहिए। कई परिवार अब खुद अपनी बेटियों के नाम ज़मीन दर्ज करा रहे हैं, ताकि आगे किसी विवाद की स्थिति न बने। इससे बेटियां आत्मनिर्भर बनेंगी और सामाजिक दृष्टिकोण से उनकी स्थिति और मज़बूत होगी।
यह फैसला इस बात की ओर इशारा करता है कि भारतीय समाज अब बदलाव के रास्ते पर है और बेटियों को उनके अधिकार दिलाने की दिशा में क़ानून भी मज़बूती से खड़ा है। अब बेटियां सिर्फ पढ़-लिख कर आगे नहीं बढ़ेंगी, बल्कि पैतृक संपत्ति में भी उन्हें पूरी हिस्सेदारी मिलेगी, जिससे समाज में असली बराबरी की नींव रखी जा सकेगी।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला सिर्फ एक न्यायिक आदेश नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना की दिशा में एक मजबूत कदम है। यह फैसला हर बेटी को यह भरोसा देता है कि वह भी अपने पिता की संपत्ति में पूरी तरह हकदार है, चाहे उसकी शादी हो चुकी हो या नहीं। अब जरूरी है कि इस फैसले की जानकारी समाज के हर कोने तक पहुंचे और हर बेटी अपने अधिकार से परिचित हो।
Disclaimer: यह लेख केवल सूचना के उद्देश्य से लिखा गया है। इसमें दी गई जानकारी सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर आधारित है। किसी कानूनी विवाद में विशेषज्ञ की सलाह अवश्य लें।