Crime News India: देश में बाल तस्करी एक ऐसा अपराध है जो चुपचाप सैकड़ों बच्चों का बचपन निगलता आ रहा है। लेकिन हाल ही में जो खबर सामने आई है, वह राहत भरी है। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR) की ओर से चलाई जा रही एंटी-चाइल्ड ट्रैफिकिंग सेल (ACTC) ने अब तक 964 बच्चों को तस्करों के चंगुल से छुड़ाया है। यह आंकड़ा सिर्फ एक नंबर नहीं, बल्कि उन मासूमों की जिंदगी में लौटी रौशनी की पहचान है।
इस काम के पीछे लगातार चल रही जाँच, छापेमारी और एनजीओ के सहयोग का बड़ा हाथ रहा है। सरकार के स्तर पर यह एक मजबूत कदम माना जा रहा है, जिससे बाल तस्करी की गंभीर समस्या को जड़ से मिटाने की कोशिश हो रही है। लेकिन असली सवाल यह है कि क्या यह सिर्फ एक शुरुआत है या फिर अब वाकई बदलाव की उम्मीद की जा सकती है?
बच्चों को कैसे बनाया जाता है शिकार
भारत के कई राज्यों में गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी जैसे हालातों का फायदा उठाकर तस्कर बच्चों को अपने जाल में फंसाते हैं। ये लोग बच्चों के माता-पिता को अच्छी नौकरी या पढ़ाई का झांसा देकर उन्हें शहरों में भेजते हैं, लेकिन वहां उनके साथ मजदूरी, घरेलू काम, होटल में झाड़ू-पोछा या कई बार अश्लील गतिविधियों में जबरदस्ती शामिल कराया जाता है।
एनसीपीसीआर की रिपोर्ट के मुताबिक, कई बार बच्चे इंटरस्टेट ट्रैफिकिंग का शिकार होते हैं – मतलब एक राज्य से दूसरे राज्य में भेज दिए जाते हैं, जिससे उन्हें खोज पाना मुश्किल हो जाता है। इन बच्चों की उम्र अक्सर 8 से 16 साल के बीच होती है, जब वो सबसे ज्यादा असुरक्षित होते हैं और किसी के भी बहकावे में आ जाते हैं।
हाल ही में दिल्ली, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल और राजस्थान जैसे राज्यों से बड़ी संख्या में बच्चों को बचाया गया है। एनसीपीसीआर की रिपोर्ट बताती है कि ये बच्चे कई महीनों से बंद कमरों में काम कर रहे थे, कई को शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना का भी सामना करना पड़ा।
NCPCR और ACTC का काम कैसे करता है
NCPCR के अंतर्गत बनी यह एंटी-चाइल्ड ट्रैफिकिंग सेल (ACTC) बच्चों की सुरक्षा के लिए बनी एक खास यूनिट है जो राज्य सरकारों, चाइल्ड वेलफेयर कमेटियों (CWC), रेलवे पुलिस, जिला प्रशासन और सामाजिक संस्थाओं के साथ मिलकर काम करती है।
ACTC का मुख्य काम होता है ऐसे मामलों की पहचान करना, मौके पर छापेमारी करना और बच्चों को रेस्क्यू करके उन्हें सुरक्षित केंद्रों में पहुंचाना। इसके बाद बच्चों की काउंसलिंग होती है और जहां संभव हो, वहां उन्हें उनके परिवार से मिलवाया जाता है।
सिर्फ बचाना ही नहीं, बल्कि उसके बाद इन बच्चों के पुनर्वास की प्रक्रिया भी ACTC की जिम्मेदारी होती है। इसीलिए रेस्क्यू के बाद हर बच्चे की मेडिकल जांच, पढ़ाई की योजना और मानसिक स्वास्थ्य का मूल्यांकन किया जाता है ताकि वो फिर से सामान्य जिंदगी में लौट सकें।
964 बच्चों की रेस्क्यू रिपोर्ट क्यों है खास
एनसीपीसीआर द्वारा साझा किया गया यह आंकड़ा सिर्फ एक आंकड़ा नहीं है, बल्कि यह बताता है कि अब सरकार और एजेंसियां सिर्फ कागजों पर नहीं, जमीनी स्तर पर भी सक्रिय हैं। 964 बच्चों को छुड़ाने की प्रक्रिया में 20 से ज्यादा राज्यों की एजेंसियां और 100 से ज्यादा अधिकारियों की मेहनत लगी है।
इन बच्चों में से कई को ट्रेन स्टेशनों, बस अड्डों और फैक्ट्रियों से रेस्क्यू किया गया है। खास बात ये रही कि कुछ बच्चों को चाइल्ड हेल्पलाइन (1098) पर मिली सूचनाओं के आधार पर बचाया गया, जिससे यह साबित होता है कि अब लोग जागरूक हो रहे हैं और बच्चों की सुरक्षा को लेकर सजग हैं।
रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि इन बच्चों को छुड़ाने के बाद दोषियों पर सख्त कार्रवाई की गई है। कई जगहों पर गिरफ्तारी हुई है और कई तस्करी रैकेटों का पर्दाफाश हुआ है।
अब भी लंबा रास्ता बाकी है
हालांकि यह संख्या राहत देती है, लेकिन देश में बाल तस्करी की जड़ें अभी भी गहरी हैं। हर साल हजारों बच्चे गायब होते हैं, जिनमें से बहुतों का कोई सुराग नहीं मिलता। बच्चों को सिर्फ बचाना ही काफी नहीं, बल्कि उन्हें दोबारा उसी स्थिति में जाने से रोकना भी जरूरी है।
इसके लिए समाज की जागरूकता सबसे अहम है। स्कूलों, पंचायतों और समाजिक संस्थाओं को इस दिशा में कदम उठाने होंगे। अगर हम हर अजनबी ऑफर पर शक करना सिखा दें, बच्चों को आत्मनिर्भर बनाएं और हेल्पलाइन जैसी सेवाओं की जानकारी दें, तो बहुत बड़ा बदलाव आ सकता है। सरकार की कोशिश जारी है लेकिन इसके साथ-साथ हर नागरिक की भी जिम्मेदारी बनती है कि वो बच्चों की आवाज़ बने, न कि आंख मूंदकर चल दे।